Google Doodle: बाबा आमटे को समर्पित आज का डूडल, जानें उनके महान काम को ||

आज गूगल ने कुष्ठ रोगियों के मसीहा बाबा आमटे को अपना डूडल समर्पित किया है। बाबा आमटे का पूरा नाम मुरलीधर देवीदास आमटे था। वैसे कुष्ठ रोगियों के सशक्तीकरण में उनका योगदान काफी उल्लेखनीय है लेकिन वे सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ महान स्वतंत्रता सेनानी भी थी। उन्होंने पर्यावरण संरक्षण आंदोलन में भी अहम भूमिका निभाई। धनी परिवार में जन्मे बाबा आमटे ने अपना जीवन समाज के दबे-कुचले तबकों को समर्पित कर दिया। वह महात्मा गांधी की बातों और उनके दर्शन से काफी प्रभावित हुए और वकालत के अपने सफल करियर को छोड़कर भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए। बाबा आमटे ने अपना जीवन इंसानियत की सेवा में समर्पित कर दिया। बाबा आम्टे ने कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों की सेवा के लिए आनंदवन नाम के संगठन की स्थापना की। वह पर्यावरण संरक्षण आंदोलन जैसे नर्मदा बचाव आंदोलन से भी जुड़े हुए थे। बाबा आम्टे को उनके कल्याणकारी कार्यों के लिए कई अवॉर्ड मिले जिनमें रमन मगसायसाय अवॉर्ड भी शामिल था जो उनको 1985 में दिया गया। 

शुरुआती जीवन और शिक्षा

बाबा आमटे का जन्म 26 दिसंबर, 1914 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले के हिंगनघाट में हुआ था। उनके पिता का नाम देवीदास और माता का नाम लक्ष्मीबाई आमटे था। उनके पिता ब्रिटिश भारत के प्रशासन में शक्तिशाली नौकरशाह थे और वर्धा जिले के धनी जमींदार थे। परिवार के पहले बच्चे होने के नाते उनको काफी प्यार मिला। ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्होंने किसी चीज की मांग की हो और उनको वह चीज न मिली हो। उनके माता-पिता प्यार से उनको 'बाबा' कहकर पुकारते थे। बाद में यही नाम उनकी पहचान बन गया। बहुत ही कम उम्र में उनके पास एक बंदूक थी जिससे वह जंगली सुअर और हिरण का शिकार किया करते थे। बाद में उन्होंने एक महंगी स्पोर्ट्स कार खरीदी जिसका गद्दा चीते की खाल से बना था। आमटे ने वर्धा के लॉ कॉलेज से एलएलबी किया। उन्होंने अपने पैतृक शहर में वकालत शुरू कर दी जो काफी सफल रहा। बाबा आमटे ने 1946 में साधना गुलशास्त्री से शादी की। वह भी मानवता में विश्वास करती थीं और हमेशा बाबा आमटे की उनके सामाजिक कार्यों में मदद करती थीं। वह साधना ताई के नाम से लोकप्रिय थीं। दंपती की दो संतानें हुईं प्रकाश और विकास। दोनों डॉक्टर हैं और गरीबों की मदद करने के माता-पिता के नक्शेकदम पर चले।

महात्मा गांधी का प्रभावबाबा आमटे गांधी जी के सच्चे अनुयायी थे। उन्होंने महात्मा गांधी के दर्शन पर अमल किया और गांधीवादी जीवन जिया। गांधीजी की तरह ही उन्होंने समाज में नाइंसाफी के खिलाफ लड़ाई लड़ी और दबे-कुचले लोगों की सेवा शुरू की। गांधीजी की तरह ही वह सफल वकील थे जिन्होंने शुरू में वकालत में करियर बनाना चाहा लेकिन बाद में समाज कल्याण के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दिया। उन्होंने चंद्रपुर जिले में कुछ समय तक कूड़ा बीनने वाले और सफाई करने वालों के साथ काम किया ताकि उनकी पीड़ा को समझ सकें। जब कुछ अंग्रेजों ने महिलाओं का अपमान किया तो वह निर्भय होकर उनके खिलाफ खड़े हो गए। जब यह बात महात्मा गांधी को पता चली तो उन्होंने आमटे को 'अभय साधक' का खिताब दिया। बाद में उन्होंने अपना जीवन कुष्ठ रोगियों की सेवा में समर्पित कर दिया और लोगों में बीमारी के प्रति जागरूकता लाने पर काम किया। 
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका

बाबा आमटे ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी खुलकर भाग लिया। उन्होंने महात्मा गांधी के नेतृत्व में होने वाले लगभग सभी बड़े आंदोलनों में हिस्सा लिया। उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान पूरे भारत में बंद लीडरों का केस लड़ने के लिए वकीलों को संगठित किया। 

कुष्ठ रोगियों के लिए काम

उन दिनों कुष्ठ रोगियों को समाज में काफी दयनीय हालत और सामाजिक नाइंसाफी का सामना करना पड़ता था। उनसे भेदभादव किया जाता था और समाज से निकाल दिया जाता था। कई बार उपचार और सही देखरेख नहीं हो पाने के कारण कुष्ठ रोगियों की मौत भी हो जाती थी। ये सब देखकर बाबा आमटे काफी द्रवित हुए। उन्होंने समाज में पैठ बना चुकी गलतफहमियों और गलत धारणाओं को दूर करने के लिए कमर कस लिया। उन्होंने लोगों के बीच बीमारी को लेकर जागरूकता फैलाना शुरू किया। उन्होंने कलकत्ता स्कूल ऑफ ट्रोपिकल मेडिसन में कुष्ठ रोग पर कोर्स किया। इसके बाद अपनी पत्नी, दो बेटे और 6 कुष्ठ रोगियों के साथ अपने मिशन पर काम करने लगे। उन्होंने 11 साप्ताहिक क्लिनिक खोले और 3 आश्रमों की स्थापना की जहां कुष्ठ रोगियों का इलाज और होता था और उनके पुनर्वास का काम किया जाता था। उन्होंने मरीजों को दर्द से छुटकारा दिलाने के लिए अथक प्रयास किया। वह क्लिनिकों में खुद मरीजों को देखते थे। कुष्ठ रोग के बारे में मिथकों और गलतफहमियों को दूर करने के लिए उन्होंने खुद एक मरीज से बैसिलि का इंजेक्शन लगवाया। उन्होंने कुष्ठ रोगियों के बहिष्कार के खिलाफ मुखर होकर बोला। 1949 में उन्होंने कुष्ठ रोगियों को समर्पित एक आश्रम आनंदवन का निर्माण शुरू किया। 1949 में एक पेड़ के नीचे शुरू हुआ आनंदवन 1951 में 250 एकड़ में फैला एक कैंपस बन गया। अब आनंदवन आश्रम में दो अस्पताल, एक यूनिवर्सिटी, एक अनाथालय और दृष्टिबाधित छात्रों के लिए एक स्कूल भी है। आज के समय में आनंदवन सिर्फ कुष्ठ रोगियों तक ही सीमित नहीं है। यहां अन्य प्रकार की शारीरिक दिव्यांगता के मरीजों का भी इलाज होता है। 

आदिवासियों के लिए काम

बाबा आमटे ने 1973 में लोक बिरादरी प्रकल्प की शुरुआत की। यह परियोजना महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के भामरागढ़ तालुका की माडिया गोंड जनजाति के बीच विकास कार्यों को अंजाम देने के लिए शुरू की गई थी। इस परियोजना के तहत एक अस्पताल खोला गया जिसमें इलाके की स्थानीय जनजातियों को बुनियादी चिकित्सा सुविधाएं मुहैया कराई गईं। उन्होंने बच्चों के लिए एक स्कूल भी खोला जिसमें छात्रावास की भी सुविधा थी। वयस्कों के लिए एक केंद्र खोला जिसमें उनको आजीविका कमाने के कौशल और प्रशिक्षण सिखाए जाते थे। उसमें एक पशु अनाथालय भी था जहां जानवरों की देखभाल की जाती थी। इसका नाम आमटे ऐनिमल पार्क रख दिया गया है। 

शांति और एकता की वकालत

बाबा आमटे सांप्रदायिक सौहार्द और एकता में विश्वास रखते थे। 1985 में जब देश दंगों की आग में झुलस रहा था तो उन्होंने राष्ट्रव्यापी भारत जोड़ो आंदोलन चलाया। उन्होंने देश भर में भारत जोड़ो यात्राएं कीं। उनका मकसद शांति और एकता का संदेश देना था। आमटे और उनके 116 युवा अनुयायियों ने कन्याकुमारी से शुरू करके कश्मीर तक करीब 5,042 किलोमीटर की यात्रा की। उनके मार्च से देश के लोगों में एकता और भाईचारे का संदेश गया। 

नर्मदा बचाव आंदोलन (एनबीए)

1990 में बाबा आमटे आनंदवन छोड़कर मेधा पाटकर के नर्मदा बचाव आंदोलन में शामिल हो गए। नर्मदा से रवाना होते समय उन्होंने कहा, 'मैं नर्मदा के साथ रहने के लिए जा रहा हैं। नर्मदा सामाजिक नाइंसाफी के खिलाफ सभी संघर्षों के प्रतीक के तौर पर लोगों के लब पर रहेगी।' 

बाबा आमटे का निधन

2007 में बाबा आमटे को ल्युकीमिया हो गया। एक साल से ज्यादा समय तक बीमार रहने के बाद 9 फरवरी, 2008 में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनके निधन पर पूरा देश शोक में डूब गया। दुनिया भर से उनके निधन पर सांत्वना संदेशा का तांता लग गया। बाबा आमटे के शव को दफनाया गया। 

पुरस्कार

बाबा आमटे के काम को दुनिया भर में सराहा गया। उनको राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई तरह के पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। 1971 में उनको पद्म श्री और 1986 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। कुष्ठरोगियों के लिए उसके काम के सम्मान 1979 में उनको जमनालाल बजाज पुरस्कार दिया गया। 1985 में उनको रमन मगसायसाय पुरस्कार मिला और 1990 में टेम्पलेटन। इन दोनों अवॉर्ड से दुनिया भर में उनकी ख्याति फैली। साल 2000 में उनको गांधी पीस प्राइज दिया गया। अवॉर्ड के साथ एक करोड़ रुपये नकद दिया गया जिसे उन्होंने कल्याणकारी परियोजनाओं को समर्पित कर दिया। 

विरासत

उनकी कल्याणकारी परियोजनाओं को उनके बेटे डॉ. विकास आमटे और डॉ. प्रकाश आमटे आगे बढ़ा रहे हैं। डॉ. विकास आनंदवन को संभाल रहे हैं जबकि डॉ. प्रकाश लोक बिरादरी परियोजनाओं के कामों की देखरेख करते हैं। 

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